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अरे! ये तो बड़ा ही झंझटी मामला है। ‘पाखी’ की शुरुआत तो केवल साहित्य के प्रति अनुराग के चलते की थी। नहीं तब हल्का-सा भी इल्हाम था कि यहां भी वही सब भारी तादात में मौजूद है जो अपने आस-पास रोज देखते महसूसते हैं। जलन, कुंठा, घात-प्रतिघात, खेमेबाजी, विचारधाराओं से जकड़े बुद्धिवादियों का ऐसा जमघट जो एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए हर उस छल-कपट का सहारा लेने को तत....