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‘मोर्चा’
तो,
लो-
मैं,
कविता के भीतर
कविता में खोलता हूं मोर्चा
तुम्हारी तमाम वाचलता और झूठ के विरुद्ध तुम्हारे द्वारा कैद
और हत्या कर दिए जाने की
तमाम संभावनाओं के बीच
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