कभी-कभी कुछ बातें अधूरी रह जाने पर ही पूरी होती हैं। यह बात मैंने बहुत बाद में समझी। उस दिन नहीं जब मैंने पहली बार कविता को देखा था-दिल्ली विश्वविद्यालय की वह उमस भरी पहली जुलाई की दोपहर।
लाल ईंटों वाली इमारतों के बीच पेड़ों की लंबी कतारें, कैंटीन से उठती चाय की भाप, और लॉन में बैठे छात्र-छात्रओं की हंसी-सब कुछ जैसे एक नई शुरुआत का हिस्सा था।
ऐसे ही एक कोने में मैं बैठ....
