सूर्यबाला जी को सारिका और धर्मयुग के समय से पढ़ता रहा हूं। उस समय आज की तरह इतनी पत्रिकाएं नहीं थीं। सारिका हर साहित्य-प्रेमियों की पसंदीदा पत्रिका और धर्मयुग हर पढ़े-लिखे लोगों के घर-घर की पत्रिका थी। इन पत्रिकाओं में छपना बड़े ही गर्व की बात समझी जाती थी और एक प्रकार से लेखक होने की मान्यता मिल जाती थी। सूर्यबाला जी ने उपन्यास और कहानियों को जिस तरह साध लिया था, उसी अधिकार ....
