हिंदी साहित्य के भीतर संबंधवाद इन दिनों इतना प्रबल हो गया है कि विचारधारा और सृजनात्मकता, दोनों ही बाधित हो रही है। एक तरफ तो ऐसा लगता है कि हमारे समाज में वैचारिक लड़ाई काफी तीव्र हो रही है। लेकिन, दूसरी तरफ आप जरा गौर से देखें तो संबंधवाद के कारण वैचारिक लड़ाइयां न केवल कमजोर पड़ रही हैं बल्कि दिशाहीन भी हो रही हैं। बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं।
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