शिवा

पेड़ और लाश

भीड़ थी कि बढ़ती जा रही थी, मानो चीटियों के झुंड़ की तरह। सभी आपस में बातें कर रहे थे। पेड़ जैसे अभी-अभी ही अपनी शाखाओं को मजबूत कर पाया था। पत्तियां हरी-भरी थी और कुछ फूल लहलहा रहे थे। रस्सी के कसाव से लगता था कि वह डाल अभी ही इस भार से टूट जाएगी। उसकी चटकन महसूस की जा सकती थी जो दिख नहीं रही थी। मटमैले कपड़ों में वह एक थका-हारा-सा और आंखें बंद जैसे जिदंगी के किन्हीं सौदों का ल....

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