प्रेम गुप्ता ‘मानी’

  वो अनकहा 

‘अरे बाप रे---कितनी ठंड है---’ खिड़की में लगे शीशे के पार मेरी नजर गई तो रजाई के भीतर भी मैं जैसे ठिठुर गई। बाहर इतना घना कोहरा था कि आर-पार कुछ दिख ही नहीं रहा था। यद्यपि, स्ट्रीट लाइट अब भी जल रही थी पर घने कोहरे ने उसे बेअसर कर दिया था---। खिड़की का शीशा भी कड़क ठंड से धुंधला हो गया था।
जनवरी का महीना---वैसे भी बेहद ठंडा और जानलेवा होता है तिसपर रात में पानी बरस जाए तो? ऐसे में रज....

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