सुधीश पचौरी

कुछ छूटी हुई बहसें और कुछ बातें

मेरे मित्र मेरे प्रतिमान

 

संवेदना-संकुचन के बाद हमारे साहित्यिक विमर्श और भी संकुचित होते गए। हमारा स्वभाव अवसरवादी और तदर्थवादी होता गया यानी किसी तरह से अपना काम चले बाकी जाएं भाड़ में, यह आदत बन गई। 
हम जुगाड़वादी हो गए। किसी समस्या से पूरी तरह झगडे़ नहीं,  न उसका निदान खोजा गया बस जैसे-तैसे अपना काम चलाया। 
 ‘नए....

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