यह अपनी तत्कालीन सामाजिक ‘परिस्थितियों’ के प्रति ‘अनक्रिटीकल बेगानापन’ था कि जर्मनी का ‘यहूदी-सहांर’ तो दिखता था लेकिन ऐन दिल्ली यूपी का ‘सिख नर-संहार’ नहीं दिखा -
इतने बडे नर-संहार के प्रति एंसा ‘बेगानापन’ न केवल घोर आश्चर्यजनक था बल्कि ‘सलेक्टिव’ भी था और आज तक है-
जरा सोचिएः
जिस दौर में हिंदी का आम लेखक अपनी प्रगतिशीलता का दावा करता हो,....
