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इतिहास की मूलतः समान चरित्र वाली परिघटनाओं के बीच सादृश्य-निरूपण या समान्तरता स्थापित करने की कोशिशें विमर्श को प्रायः एक विडम्बनापूर्ण दुश्चक्र में उलझा देती हैं। आज के फासीवाद की चर्चा करते हुए जब नात्सी या इतावली फासीवादी अनुभवों को निरपेक्ष मानक बनाया जाने लगता है, तो उदय प्रकाश की कविता ‘तानाशाह’ की ये पंक्तियां याद आने लगती हैंः
वह अभी तक ....
