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खिड़की के पर्दे को चीरता धूप का एक नारंगी टुकड़ा सुनन्दा के पैरों पर आकर रुक गया। सुनन्दा पैर इधर- उधर कर उस टुकड़े के नए आकार-प्रकार कभी एड़ियों पर तो कभी पैरों के पंजे पर बनाती रही।बाहर आसमान में सूरज और उड़ते हुए बादलों के बीच आँख-मिचोली सी चल रही थी।कमरे की खिड़की से बाहर झाँकना हमेशा से ही उसे बहुत अच्छा लगता था, जमकर लड़ाई होती थी उसकी रोमेश के साथ खिड़की से सटे पलंग पर सोने....
